चाणक्य जीवन दर्शन
चाणक्य ने ईसा से 300 वर्ष पूर्व ऋषि चणक के पुत्र के रूप में जन्म लिया। वहीउनके आरंभिक काल के गुरु थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चणक केवल उनके गुरु थे
चणक के ही शिष्य होने के नाते उनका नाम चाणक्य पड़ा। उस समय का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों ने प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अपनी-अपनी धारणाएं बनाईं।
परंतु यह सर्वसम्मत है कि चाणक्य की आरंभिक शिक्षा गुरु चणक द्वारा ही दी गई। संस्कृत ज्ञान तथा वेद-पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन चाणक्य ने उन्हीं के निर्देशन में किया। चाणक्य मेधावी छात्र थे। गुरु उनकी शिक्षा ग्रहण करने की तीव्र क्षमता से अत्यंत प्रसन्न थे।
तब सभी सूचनाएं व विधाएं धर्मग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती थीं। अतः धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन शिक्षा प्राप्ति का एकमात्र साधन था। चाणक्य ने किशोरावस्था में ही उन ग्रंथों का सारा ज्ञान ग्रहण कर लिया था। अब बारी उच्च शिक्षा की थी, जो उनमें मंथन व शोध की योग्यता पैदा करे जिससे वे अब तक प्राप्त ज्ञान को रचनात्मक रूप दे सकें व उसका विस्तार कर सकेंउस काल में तक्षशिला एक विख्यात विश्व-विद्यालय था, जो सिंधु नदी के किनारे बसे
नगर के रूप में था। विश्व विद्यालय में प्रख्यात विद्वान तथा विशेषज्ञ प्रोफेसरों के रूप में छात्रों को शिक्षा देते थे। तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर-दूर से राजकुमार, शाही परिवारों के पुत्र, ब्राह्मणों, विद्वानों, धनी लोगों तथा उच्च कुलों के बेटे आते थे।
तक्षशिला अब पाकिस्तान में है। पुरातत्व खुदाई में यूनिवर्सिटी का पूरा चित्र उभरकर सामने आया है। तक्षशिला में दस हजार छात्रों के आवास व पढ़ाई की सुविधाएं थीं। अध्यापकों की संख्या का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। विश्वविद्यालय में आवास कक्ष, पढ़ाई के लिए क्लास रूम, हॉल और पुस्तकालय थे। तक्षशिला के अवशेषों को देखने के लिए आज प्रतिवर्ष हजारों टूरिस्ट, इतिहासकार तथा पुरातत्ववेत्ता आते हैं। विश्वविद्यालय कई विषयों के पाठ्यक्रम उपलब्ध करता था जैसे भाषाएं, व्याकरण, दर्शनशास्त्र, चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, कृषि, भूविज्ञान, ज्योतिष, खगोल शास्त्र, ज्ञान- विज्ञान, समाज शास्त्र, धर्म, तंत्र शास्त्र, मनोविज्ञान तथा योग विद्या आदि। विभिन्न विषयों पर शोध का भी प्रावधान था। कोर्स 8 वर्ष तक की अवधि के होते थे। विशेष अध्ययन के अतिरिक्त वेद, तीरंदाजी, घुड़सवारी, हाथी का संधान व एक दर्जन से अधिक कलाओं की शिक्षा दी जाती थी।
तक्षशिला के स्नातकों का हर स्थान पर बड़ा आदर होता था। यहां छात्र 15-16 वर्ष की अवस्था में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने आते थे। स्वाभाविक रूप से चाणक्य को उच्च शिक्षा की चाह तक्षशिला ले आई। यहां भी चाणक्य ने
पढ़ाई में विशेष योग्यता प्राप्त की। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि चाणक्य कुरूप थे व उनका रंग भी काला था। इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में केंद्रित किया। उन्हें रूप की कमी विद्वान बन कर पूरी करने की धुन सवार थी। फिर एकाकी छात्र और करता भी क्या? एक काले, रूपहीन व निर्धन विद्यार्थी को मित्र बनाने में किसी दूसरे छात्र को रुचि भी नहीं थी। पर दूसरे छात्रों को चाणक्य के विद्वत्ता के प्रमाण तो मिलते ही रहते थे। यह बात
और थी कि वह राजा-महाराजाओं का काल था। सरस्वती पत्र के गुणों को आदर देने की
उदारता राजपुत्रों में नहीं थी। एकाकी होकर एकाग्रता से चाणक्य ने अपने विषयों की खूब पढ़ाई की। धार्मिक ग्रंथों का फिर से मंथन करने की दृष्टि से अध्ययन किया। उन्होंने राजनीति, अर्थशास्त्र, राज्य तथा सामाजिक विषयों पर उपलब्ध ग्रंथ स्वाध्याय के लिए पढ़े। यह स्पष्ट हो गया था कि चाणक्य एक विद्वान बनने की राह पर थे, जो तक्षशिला
विश्वविद्यालय द्वारा पैदा किया एक रत्न साबित होने वाला था। विश्लेषक चाणक्य
वह युग राजनीतिक उथल-पुथल का था। चारों ओर अराजकता फैली थी। लोगों का
जीवन असुरक्षित था। उन पर शोषण की मार पड़ती ही रहती थी।
शासक राजा निरंकुश थे, जो धनी वर्ग व जमींदारों के साथ मिलकर जनता पर
अत्याचार करते व उनका खून चूसते थे। अधिकतर राजाओं के राज्यों में न कोई विधि-
विधान था न प्रशासनिक व्यवस्था। अधिकारियों व उनके कारिंदों की मनमानी ही कानून था।
गरीब लोग त्रस्त थे। चाणक्य स्वयं उसी निर्धन-असहाय वर्ग से थे। अतः राजनीतिक व
सामाजिक दुर्दशा का विश्लेषण करना उनका स्वभाव हो गया। चारों ओर घटती घटनाओं से
भी वह शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
यही काल था जब सोचते-सोचते उनके मन में एक आदर्श राज्य, सुगठित व्यवस्था,
नागरिक संहिता तथा अर्थतंत्र की परिकल्पनाएं जन्म लेने लगी थीं। उनके मस्तिष्क में लंबे
समय तक वह परिकल्पनाएं पकती रहीं व परिष्कृत होती रहीं जिन्हें बाद में उन्होंने ग्रंथों के
रूप में लिखा व अमर हो गए।
इतिहास करवट ले रहा था। यूनान से एक योद्धा विश्व विजय का सपना लेकर एक
विशाल सेना के साथ पूर्व की ओर कूच कर चुका था। एशिया महाद्वीप के मध्य-पूर्वी देश
उसके आक्रमों की चपेट में आ गए थे। युद्ध की गरम हवाएं भारत की ओर पश्चिम से आ
रही थीं। कई राज्य उजड़ रहे थे।
यूनान का वह दुर्दीत योद्धा था सिकंदर जो महान कहलाया। उसकी सेना विशाल थी
और उस सेना की युद्ध पद्धति नवीन थी जो रुढिवादी भारतीय शासकों की समझ से परे थी।
यूनानी सेना एक ज्योमितिक आकार में आगे बढ़ती थी। उनके सैनिक चमचमाते कवों
सुरक्षित घोड़ों पर बैठे आक्रमण करते थे। पैदल सेना लंबे भालों से दूर से ही शत्रु को बींध
कर गिरा देती थी। जिसका भारतीय व दुसरे देशों की सेनाओं के पास कोई उत्तर न था।
उजड़े लोग शरणार्थी बनकर पूर्व की ओर आ रहे थे। तक्षशिला में भी शरणार्थियों की
भीड़ आ घुसी। विश्वविद्यालय परिसर भी शरणार्थियों से भर गया। जिस नगर में केवल
शिक्षार्थी आते थे अब वहां रोटी-पानी व आश्रय मांगने वाले आ रहे थे।
समस्या से निपटने के लिए राजा ने अपने विशिष्ट व्यक्तियों की सभा बुलाई व
समस्या का समाधान ढूंढा। पड़ोसी राजा भी विचार-विमर्श करने आए। अंत में निर्णय यह
लिया गया कि शरणार्थियों को नगर के बाहर एक भूमि में आश्रय दिया जाए। वे नगर में
केवल परिचय पत्र दिखाकर ही आ सकते थे, परंतु विश्वविद्यालय परिसर में उनका प्रवेश
वर्जित था।
इस प्रकार चाणक्य ने स्वयं देखा कि इस प्रकार की आपात स्थिति उत्पन्न होने पर
कौन से कदम उठाए जाने चाहिए।
_ स्नातक बनने तक चाणक्य ने विद्यालय की शिक्षा के साथ-साथ स्वयं भी विश्लेषक
के रूप में बहुत कुछ सीखा।
प्राध्यापक चाणक्य
स्नातक बनने के बाद चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन गए।
एक प्राध्यापक के रूप में स्वीकार किए जाने में कोई अड़चन नहीं आई।
स्नातक बनने के अंतिम वर्ष आने तक चाणक्य की विद्वत्ता सब पर जाहिर हो गई
थी। सभी अध्यापक तथा छात्र उनका लोहा मानने लग गए थे। अध्यापक तो उन्हें समकक्ष
ही मानने लगे तथा छात्र अध्ययन या शोध में निस्संकोच चाणक्य की सहायता लेते थे।
प्राध्यापक के रूप में चाणक्य ने शीघ्र ही अपनी जगह बना ली तथा दूसरे प्राध्यापकों
को अपना प्रशंसक बना लिया। विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों पर तो उनका
अधिकार था ही, वहीं वे अन्य सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक विषयों के भी अपनी
विलक्षण प्रतिभा के बल पर अच्छे खासे विशेषज्ञ बन गए।
छात्र तो उनकी विद्वत्ता पर मुग्ध थे ही। वे उनके ऐसे अनुयायी बन गए कि बाद में
जब चाणक्य पूर्व की ओर प्रस्थान कर गए तो कई छात्र उनकी अध्यक्षता में काम करने वहां
पहुंच गए तथा चाणक्य के अभियानों में महत्वपूर्ण रोल अदा किया। भद्रभट्ट व पुरुषदत्त
उनमें प्रमुख हैं।
तक्षशिला अब तेजी से गरम हो रहा था। पश्चिम की ओर से युद्ध की झुलसाने वाली
गरम हवाएं तूफानी अंदाज में आ रही थीं। यूनानी योद्धा सिकंदर के घोड़ों की टापें सुनाई देने
लगी थीं। चाणक्य ने तक्षशिला छोड़ पूर्व की ओर कूच करने का मन बना लिया था। उनके
दिमाग में बड़ी-बड़ी योजनाएं थीं एक आदर्श राज्य स्थापित करने की। उन योजनाओं को
फलीभूत होने के लिए समय की दरकार थी पर तक्षशिला का तो अपना अंतिम समय आ
गया था। यम द्वार पर दस्तक दे रहा था। वहां से खिसकने में ही भलाई थी।
चाणक्य ने सुदूर पूर्व की ओर का रुख किया। यहां मगध साम्राज्य था जिसकी
राजधानी पाटलिपुत्र (आज का पटना) थी। वहां का मोह चाणक्य के लिए इसलिए था, कि
पाटलिपुत्र के निकट ही उस समय का महान विश्वविद्यालय नालंदा था, जो तक्षशिला से
किसी सूरत कम नहीं था। 399 वर्ष ईसा पूर्व एक चीनी घुमंतू इतिहासकार फाहयान ने वहां
की यात्रा की थी व पाटलिपुत्र के गुण गाए थे।
पाटलिपुत्र गंगा के किनारे बसा था। इतिहास के दौरों में उसके कई नाम रहे,
पुष्पापुर, पुष्पनगर, पाटलिपुत्र और अब पटना है।
वहीं चाणक्य ने धरती के स्तर से कार्य करते-करते ऊपर उठने का मन बना लिया
ताकि वह धरती से जुड़ी सच्चाइयों से भी व्यक्तिगत रूप से परिचित हो जाएं। अपनी
तक्षशिला की स्नातकता व प्राध्यापकता का हवाला देने के बजाय एक शिक्षक की साधारण
नौकरी स्वीकार कर ली।
मगध में धनानंद का भ्रष्ट राज्य था। राजा केवल कर लगाकर धन उगाना व अपना
खजाना भरना जानता था। जनता दुखी थी। पर उसका मंत्री समझदार था। मंत्री अमात्य
शकटार ने राजा को समझाया कि केवल लूट-खसोट से काम नहीं चलेगा। उन्हें कुछ धन
लोक कल्याण तथा पुरस्कार रूप में बांटकर जनता का आक्रोश कम करना होगा। बात राजा
की समझ में आ गई। उसने कलाकारों, विद्वानों तथा लोक कल्याण कार्यों के लिए अनुदान
देने आरंभ किए। इस बीच चाणक्य अपनी योग्यता से स्थानीय लोगों के दिल में घर कर चुके
थे। सामाजिक कार्यों में भी उनकी रुचि थी। वे सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था सुधारना
चाहते थे। उन्होंने प्रमुख लोगों को सुझाया कि राजा द्वारा दिए अनुदानों का दुरुपयोग हो रहा
है क्योंकि उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। इसके सदुपयोग के लिए विद्वानों व प्रमुख व्यक्तियों की
एक समिति होनी चाहिए।
बात सबको जंच गई। विद्वानों ने मिलकर एक संघ बनाया। चाणक्य को अध्यक्ष
बनाने में किसी को भी आपत्ति नहीं हुई। कुछ अधिकारियों ने अनुदान की राशियां संघ को
दीं। चाणक्य के निर्देशन में उनका अत्यंत रचनात्मक उपयोग हुआ, जिसकी सबने प्रशंसा
की।
संघ के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया कि चाणक्य को स्वयं राजा धनानंद से मिलना
चाहिए ताकि अधिक अनुदानों की व्यवस्था हो सके। उन्हें यह भी आशा थी कि राजा
चाणक्य की योग्यताओं को देखते हुए उन्हें उचित दायित्व सौपेंगे। चाणक्य तैयार हो गए।
ऐसे समय में चाणक्य को आचार्य शकटार से मिलने का विचार आया। वे चाणक्य के
सहपाठी व मित्र रह चुके थे। दोनों तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण कर चुके थे। शिक्षा पूर्ण करने के
पश्चात आचार्य शकटार पहले नंद साम्राज्य में मंत्री बने फिर महामंत्री। इसीलिए तो चाणक्य
ने पहले निचले स्तर से कार्य शुरू कर अपनी योग्यता सिद्ध करने की कोशिश की थी। वे
बहुत स्वाभिमानी थे। वे पहले ही शकटार से मिलते तो सभी को यह लगता कि चाणक्य
अपने मित्र को सीढी बनाकर ऊपर चढ़ गए और शायट उनकी योग्यता का सही मल्यांकन न
होता। परंतु अब मिलना आवश्यक था क्योंकि वे विदेशी आक्रमणकारी सिकंदर की चालों व
खतरों से मगध सम्राट को सावधान करना चाहते थे।
एक संदेशवाहक के साथ चाणक्य ने पत्र भेजकर आचार्य शकटार से निजी रूप से
मिलने की इच्छा जताई। शकटार को अपने पुराने सहपाठी की पाटलिपुत्र में उपस्थिति से
प्रसन्नता हुई। वैसे संघ के कार्यों का ब्योरा पाकर उन्हें कुछ-कुछ अनुमान तो पहले ही हो गया
था कि शायद उसका संचालन-अध्यक्ष चाणक्य उनका तक्षशिला शिक्षा प्राप्ति के दिनों का
मित्र ही हो सकता है। वह यह भी जानते थे कि स्वाभिमानवश वह मित्र उनसे सहायता नहीं
लेना चाहेगा। शकटार ने सहर्ष चाणक्य को अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया।
चाणक्य आए तो शकटार उनसे पुरानी आत्मीयता से मिले और भीतर ले जाकर
आदरपूर्वक बिठाया। कुशलक्षेम के पश्चात चाणक्य ने भारत के पश्चिमी भाग के राज्यों की
दशा का वर्णन किया कि किन परिस्थितियों में उन्हें तक्षशिला छोडकर पूर्व की ओर आना
पड़ा। उन्होंने यूनानी आक्रमणकारी सिकंदर के अभियान के खतरों की चर्चा भी की।
शकटार ने पूछा, "जरा विस्तार से बताइए कि पश्चिमी भागों में क्या हुआ? और यह
सिकंदर क्या मुसीबत है?"
चाणक्य ने लंबी सांस लेकर उत्तर दिया, "अमात्य! वही पुरानी कहानी बार-बार
दोहराई जा रही है। हमारे शासक आपस के छोटे-छोटे कलहों में उलझे रहते हैं और विदेशी
आक्रमणकारियों के लिए अपने द्वार खोल देते हैं। इस बार यह विदेशी आक्रमणकारी कोई
साधारण व्यक्ति नहीं है। वह यूनान देश का महायोद्धा सम्राट है। जिसने विश्व विजय की ठान
ली है और एक अति विशाल सेना लेकर उसी अभियान पर पूर्व की ओर कूच कर चुका है।
उसके सैनिक नए प्रकार के कवचों व आयुधों से सज्जित हैं। उसकी सेना ज्यामितिक
संरचनाबद्ध होकर वार करती है और युद्ध की ऐसी पद्धतियों का प्रयोग करती है जिनका
हमारी सेनाओं को ज्ञान ही नहीं है। वह अपने सामने आने वाली सारी सेनाओं व राज्यों को
रौंदता हुआ हमारी सीमा तक आ पहुंचा है। उसकी शक्ति के सामने पारस के महान साम्राज्य
भी टिक नहीं पाए। मिस का पतन हो चुका। शकस्तान, कंधार और बखत्रिया ढह गए।
हिंदुकुश पर्वत पार कर उसने हमारी भूमि पर अपना पैर रखा।"
__ "तो क्या सिकंदर ने तक्षशिला पर विजय प्राप्त कर ली?" शकटार ने विस्मित और
चिंतित स्वर में पूछा।
“आचार्य! आपको उस विद्यार्थी की याद है जिसका नाम आंभिक था, जब हम
तक्षशिला में विद्या ग्रहण कर रहे थे?"
"मुझे कुछ स्मरण नहीं है।" शकटार ने याद करने का प्रयत्न करते हुए कहा।
"उसकी कहानी का सिकंदर के संदर्भ में बहुत महत्व है।" ऐसा कहकर चाणक्य ने
शकटार को आंभिक की कहानी सुनाई।
आंभिक की कथा
"तक्षशिला गांधार राज्य की राजधानी था। गांधार राज्य सिंधु व झेलम नदियों के
बीच का प्रदेश था। सिंधु नदी के पश्चिम की ओर का क्षेत्र पश्चिमी गांधार कहलाता था, जो
पृथक स्वतंत्र राज्य था। गांधार एक सुखी राज्य था और तक्षशिला विश्वविद्यालय उसका
गौरव था। इसी कारण दूसरे राज्यों में उसका नाम सम्मान से लिया जाता था।
झेलम के पूर्व की ओर पुरु का केकय राज्य था। तक्षशिला के यश व प्रसिद्धि के
कारण वह गांधार राज्य से जलता था। पुरु एक महत्वाकांक्षी राजा था। उसने अपने आस-
पास के कई छोटे राज्यों को साम-दाम व दंड की नीति अथवा युद्ध में परास्त कर केकय में
जोड़ अपना विस्तार करने का अभियान चला रखा था। लक्ष्य केकय को साम्राज्य बनाकर
राजा से सम्राट बनना था। पुरु के पास चतुर व धूर्त मंत्रियों का दल व योग्य सेनापति था जो
पुरु के विस्तारवाद को साकार रूप दे रहे थे। इस दल ने योग्य गुप्तचरों का एक अति
प्रभावशाली तंत्र बना रखा था, जो शत्रु देशों में कहीं भी घुसपैठ करने में सक्षम था। मंत्री दल
के प्रमुख योजनाकार मुख्यमंत्री इंद्रदत्त थे।
सभी जानते थे कि राजा पुरु की दृष्टि गांधार राज्य पर है। परंत गांधार छोटा-मोटा
अशक्त राज्य नहीं था। उसे हथियाने के लिए दीर्घकालीन योजना चाहिए थी। इंद्रदत्त के
गुप्तचरों ने सूचना दी कि गांधार के सेनापति सिंहनाद नीरस एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे
हैं। कुछ वर्ष पूर्व उनकी प्रेयसी-पत्नी का देहांत हो चुका था। अब उनका विधुर जीवन सूना
था। चतुर इंद्रदत्त को यहां अपना पेंच लगाने का अवसर नजर आया।
उनके गुप्तचर दल में एक अति सुंदर युवती थी जो पहले भी कई षड्यंत्रों में
सफलतापूर्वक भाग ले चुकी थी। इंद्रदत्त ने उसी युवती को विधुर सिंहनाद के जीवन में
घुसपैठ करने का भार सौंपा।
उस गुप्तचर यौवना को अपने कार्य में कोई कठिनाई पेश नहीं आई। कुछ ही समय
में सिंहनाद उसके प्रेम जाल में बुरी तरह फंस गए। वह उस यौवना के इशारे पर कुछ भी
करने को तैयार थे और अपने कर्तव्यों को भुलाकर उसी के प्रेमरस में डूबे रहने लगे। आखिर
वर्षों बाद उनके जीवन में बहार जो आई थी। वह यौवना धीरे-धीरे और गुप्तचरों को ले आई
व दूसरे अधिकारियों और मंत्रियों को भी उन्होंने फांस लिया।
_ गांधार का अधिकतर उच्च शासन तंत्र केकय के गुप्तचरियों के साथ भोग विलास में
डूब गया। गुप्तचरों ने पूरे प्रशासन को अपंग बना दिया।
केकय के महामंत्री इंद्रदत्त को यह समय आक्रमण के लिए उपयुक्त लगा। उन्होंने
सेनापति को कार्यवाही करने का संकेत दे दिया। केकय की सेना ने गांधार पर धावा बोला।
गांधार द्वारा प्रतिरोध का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि वहां का सारा तंत्र केकय के गुप्तचरों के
जाल में पहले ही फंस कर निष्क्रिय हो चुका था। केकय सेना ने आसानी से गांधार पर कब्जा
जमा लिया। गांधार नरेश बंदी बना लिए गए।
__केकय नरेश पुरु ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए गांधार नरेश को केवल
केकय साम्राज्य का आधिपत्य स्वीकार करने व केकय के प्रतिनिधि के रूप में शासक बने
रहने का प्रस्ताव दिया। गांधार नरेश ने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार ही नहीं किया अपितु राजा पुरु
की उदारता से गदगद हो गए व उनके कायल बन गए। यह एक मित्रता संथि थी जो विजेता
द्वारा विजित से की थी। जब पुरु स्वयं तक्षशिला पधारे तो गांधार नरेश ने उनका भव्य
स्वागत किया। पुरु के मंत्रियों का स्वामी की भांति आदर-सत्कार किया गया।
परंतु गांधार के युवराज आंभिक को यह सब अच्छा नहीं लगा। उसे अपने पिता का
शत्रु के सामने गिड़गिड़ाना बहुत खला। उसे क्रोध भी आया कि एक धोखेबाज शत्रु को इस
प्रकार सम्मान की दृष्टि से कैसे देखा जा रहा था! उसे तो पुरु एक सांप की तरह नजर आ
रहा था जिसने गांधार को डस लिया था। आंभिक का आक्रोश इतना तीव्र था कि उसने मन
ही मन पुरु से बदला लेने का मन बना लिया। अपने पिता को पुरु का प्रशंसक बना देख
उसका मन क्षोभ से भर गया था।
गांधार के शासन तंत्र को भ्रष्ट कर उसे रौंदने वाले दुष्ट का तक्षशिला में जय-जयकार
हो रहा था। आंभिक का तन-मन तो पुरु को देखते ही जलने लगता था।
समय अपनी गति से बढ़ता रहा।
गांधार की पराजय व उसका पड़ोसी राज्य पर आश्रित होना तक्षशिला विश्वविद्यालय
पर कोई कुप्रभाव न डाल पाया। विश्वविद्यालय में पढ़ाई पूर्ववत चलती रही। बाहरी परिवर्तनों
व हलचलों से विद्यालय को जैसे कोई लेना-देना न हो। शिक्षक शिक्षा प्रदान करते रहे व छात्र
अपना-अपना पाठ्यक्रम पढ़ते रहे ताकि नियत समय पर वे स्नातक बन सकें।
सच तो यह था कि तक्षशिला की जनता की जीवनचर्या में भी कोई अंतर नहीं आया।
प्रशासन भी लगभग पहले जैसा ही था। कोई अंतर था तो केवल यह कि गांधार नरेश अब
किसी दूसरे के प्रतिनिधि थे, स्वयंभू शासक नहीं। और यह तथ्य एक अहष्य वस्तु थी-
शासकों के बीच का मनोवैज्ञानिक समीकरण-जो आम आदमी के जीवन को नहीं छूता था।
परंतु राजकुमार आंभिक तो आदमी नहीं था। वह उस मनोवैज्ञानिक समीकरण का
एक भाग था। पराजय की याद भर से उसे आत्मग्लानि होने लगती थी। राजकुमार उस समय
तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहा था। उसके मस्तिष्क पटल से राजा पुरु का
अहंकार से भरा चेहरा मिटाए न मिटता था जो शायद प्रतिशोध पूरा होने पर ही मिटेगा।
राजकुमार आंभिक का मन अब पढ़ाई में नहीं लगता था।
बस अपने कक्ष में बैठा वह कुढ़ता रहता। पुरु से बदला लेने की नई-नई योजनाएं
बनाता और उसके सपने उन योजनाओं को विकृत रूप में साकार करते। उसकी हर सांस में
प्रतिशोध की फुफकार थी। उसके लिए शब्दकोष के सारे पन्ने कोरे हो चुके थे, केवल दो ही
शब्द उसमें बचे रह गए थे-भयानक प्रतिशोध। कभी-कभी लगता कि वह सचमुच विक्षिप्त
हो गया है।
। यही वह काल था जब तक्षशिला में चाणक्य व शकटार अपने अध्ययन के अंतिम
वर्षों में थे। शकटार ने आंभिक की ओर ध्यान नहीं दिया परंतु चाणक्य ने गौर से आंभिक की
मानसिक दशा का अध्ययन किया, क्योंकि वह राजनीतिक तथा सामाजिक स्थितियों का
विश्लेषण कर रहा था और आंभिक राजनीतिक परिस्थितियों का एक उदाहरण था।
आंभिक कभी-कभी भगवान से बदला लेने का अवसर प्रदान करने की प्रार्थना
करता क्योंकि वही अब उसकी प्रतिशोध योजना का सहारा था। उसके पिता गांधार नरेश व
उनके मंत्री तो राजा पुरु के भक्त बन गए थे। उनसे आंभिक को कोई आशा नहीं थी। शायद
भगवान ने आंभिक की प्रार्थना सुनने का निर्णय कर लिया था, तभी तो आंभिक की इच्छा
पूरी करने सिकंदर यूनान से सना लेकर चल पड़ा था।
राजकुमार आंभिक ने भी सुना कि यूनान का महायोद्धा सिकंदर विश्व विजय
अभियान पर एक विशाल अपराजय सेना लेकर भारत देश की सीमाओं के निकट आ पहुंचा
है। कोई सिंकदर का प्रतिशोध नहीं कर पाया था। सिकंदर नामक तूफान के आगे बड़े-बड़े
साम्राज्य खोखले पेड़ों की तरह उखड़-उखड़ कर गिर रहे थे। उसे रोक पाना किसी के
सामर्थ्य की बात नहीं थी।
उसने यह भी सुना कि जो राजा स्वयं पराजय स्वीकार कर सिकंदर की शरण में
जाता था, उससे वह मित्रवत व्यवहार करता था व आदरपूर्वक प्रश्रय प्रदान करता था। जो
उसके सामने नहीं झुका वह समूल नष्ट कर दिया जाता था। सिकंदर की क्रोधाग्नि में उस
अभिमानी को भस्म होना पड़ता था। केवल शासक ही नहीं उसकी प्रजा को भी फल
भुगतना पड़ता था जिसे यूनानी सैनिक गाजर-मूली की तरह काट देते थे। वे यूनानी सैनिक,
जो सदा चमचमाते जिर्रा बख्तर में सुसज्जित हो दमकते घोड़ों पर सवार रहते।
ऐसे देशों की अभागी जनता भयभीत होकर दूसरे देशों में आश्रय लेने भाग जाती
थी। सिकंदरी सेना के आगमन की अफवाह भर से कस्बे खाली हो जाते थे। ऐसे ही शरणार्थी
एक बड़ी संख्या में तक्षशिला में भी आ घुसे थे। तब चाणक्य ने स्वयं देखा था कि तक्षशिला
शासकों ने किस प्रकार उनके रहने व भोजन की व्यवस्था की थी। शरणार्थी समस्या भारतीय
राज्यों के लिए एक नए प्रकार की चुनौती थी। तब चाणक्य अंतिम स्नातक वर्ष में थे।
जब भारतीय शासन व्यवस्था के संचालक शरणार्थी समस्या का हल खोजने के लिए
विचार-विमर्श कर रहे थे उसी समय सिकंदर की सेना ने हिंदुकुश पर्वत पार करके भारत की
भूमि पर अपना पैर रख दिया था। अब उसके सामने भारतीय राज्यों की शृंखला थी, जिसे
उसे तोड़ना था। यह एक विडंबना ही थी कि गांधार नरेश व उनके मंत्री जब सिकंदर के
आगमन को अभिशाप मानकर विचार-विमर्श कर रहे थे तब उनका ही राजकुमार आंभिक
सिकंदर को वरदान मानकर उसमें अपनी समस्या का समाधान खोज रहा था।
एक-दूसरे स्तर पर भी परिस्थिति बदल रही थी। राज्य के प्रशासकों पर राजकुमार
आंभिक का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। मंत्रीगण तथा अधिकारी अब राजकुमार का आदर
करने लगे थे। कारण स्पष्ट था। राजा बहुत बूढ़े हो चले थे और लक्षण साफ नजर आ रहे थे
कि वे अधिक दिन जीने वाले नहीं। भिक का सिंहासन पर बैठना अधिक दूर की बात नहीं
रह गई थी। सभी को यह महसूस हो गया था कि राजकुमार आंभिक का विश्वास जीतने में ही
उनका भविष्य सुरक्षित है। राजकुमार आंभिक से कोई भी संबंध नहीं बिगाड़ना चाहता था।
कई अधिकारी तो सीधे राजकुमार से आदेश लेने लगे थे और उसका पालन भी करते यदि
वह वर्तमान व्यवस्था के बहुत प्रतिकूल न हो तो।
समय को भांप कर कई युवा राजकुमार की चापलूस मंडली बना चुके थे व निरंतर
प्रयास करते थे कि वे आंभिक को घेरे रखें। वे राजकुमार में प्रशंसा योग्य नई-नई खूबियां
ढूंढते रहते और गुणगान करते। चढ़ते सूर्य को सभी प्रणाम करते हैं। आंभिक अब पहले
जैसा असहाय नहीं महसूस कर रहा था। उसमें नया आत्मविश्वास भरता जा रहा था और उसे
अपनी योजना अब ज्यादा सार्थक नजर आने लगी थी।
चापलूस बड़े कांइयां होते हैं। वे अपने स्वामी के मन की बात दूर से ही सूंघ लेते हैं।
वे जान गए थे कि उनके राजकुमार सिकंदर के आक्रमण को सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं
और राजा पुरु से बदला लेना उनका सर्वोच्च लक्ष्य है। अतः वे सिकंदर महान के गुण गाने
लगे। सिकंदर को एक अपूर्ण योद्धा साबित करने लिए दूर-दूर से कौड़ियां ढूंढ कर लाते और
उससे मैत्री करने के लाभों पर हर प्रकार की दलीलें देते।
एक कहता, "राजकुमार! हमने अपनी तक्षशिला में आए शरणार्थियों को देखकर
जान लिया कि सिकंदर से टक्कर लेने वालों का क्या परिणाम होता है। उससे उलझने वाले
कितने मूर्ख थे! अपनी प्रजा को बरबाद कर दिया। हम सिकंदर से मैत्री कर लें तो कम से
कम हमारी प्रजा को ऐसे दिन नहीं देखने पड़ेंगे। यह तो आपकी दूरदर्शिता है कि आपने
पहले ही उचित मार्ग चुन लिया। अब हमारे गांधार राज्य के उद्धार होने में मुझे जरा भी संशय
नहीं है। धन्य हो राजकुमार!" ।
दूसरा लाल लोहे पर चोट करता, "एक बार हमारी सिकंदर से मैत्री हो जाए तो हम
अति बलशाली हो जाएंगे। जिन राजाओं ने हमारा अतीत में अपमान किया है. हम उनसे
प्रतिशोध ले सकेंगे और हम प्रतिशोध लिए बिना नहीं रहेंगे।"
आंभिक सिर हिलाकर सहमति प्रकट करता और कहता, "वह तो ठीक है, हम
जानते हैं। पर हमें करना क्या है और कैसे? यह तो कोई अनुभवी मंत्री ही बता सकता है।
यह मैत्री का विषय विधि-विधान से ही तो संभव होगा।"
__ “उसका प्रबंध तो किया जा सकता है। कोई भी मंत्री हमारा मार्गदर्शन करेगा।
आपकी सेवा कौन नहीं करना चाहेगा?" चापलूस ने आंभिक को आश्वस्त किया और जोड़ा,
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